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बुधवार, 9 दिसंबर 2009

एक ग़ज़ल पेशे ख़िदमत है .....................
ग़ज़ल
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आज का तिफ़्ल ओ जवाँ ही और है
ख्वाहिशों   की कहकशां ही और है

उन लबों पर मुस्कराहट है तो क्या
दिल में इक दर्दे नेहाँ ही और है

बेच कर आया हूँ मैं अपना ज़मीर
आज एहसासे ज़ियाँ ही और है

मैं तो जाहिल था, मुझे समझा गया
उस का अंदाज़े बयां ही और है

दिल की आँखों से वो सब देखा किया
उस का नाबीना जहाँ ही और है

शह्र के पुख्ता मकाँ हैं और घुटन
गाँव का कच्चा मकाँ ही और है

बिक गयी वो हिर्स के बाज़ार में 
मुफलिसी की ये फ़ुगां ही और है

जिस की स्याही में हो रंगे दुश्मनी
चार जानिब वो धुवां  ही और है

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तिफ़्ल  =बच्चा , कहकशां =मिल्की वे , नेहाँ =छिपा हुआ , ज़ियाँ=हानि , नाबीना =अँधा (अँधेरी दुनिया )
पुख्ता=पक्के , हिर्स =लालच , फ़ुगां =क्रंदन ,स्याही =कालिख ,जानिब =तरफ़ ,ज़मीर =अंतरात्मा .