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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

ghazal

ग़ज़ल
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दिल में बुग्ज़ छिपा रक्खा है 
मुंह पर नामे   खुदा रक्खा  है 

कोई ना समझा उस ने दिल में 

कितना दर्द छिपा रक्खा है 


मद्दे मुक़ाबिल इस आंधी के 
रौशन एक दिया रक्खा है 

भाईचारा ख़त्म ना होगा 
आस का दीप जला रक्खा है 

कल क्या होगा इन फिकरों ने 
सब का चैन उड़ा रक्खा  है 

तुम क्या दहशत ख़त्म करोगे 
तुम ने ही तो जिला रक्खा है 

बच्चों को बंदूक़ें दे कर 
कैसा खेल सिखा रक्खा है 

उस ने ख़ुद्दारी की  ख़ातिर 
ख़ुद से भी पर्दा रक्खा है 

दिल में माज़ी की यादों का 
हम ने गाँव बसा रक्खा है

इल्म तिजोरी ऐसी जिस ने  
हर इक राज़ छिपा रक्खा है 

शिकवे रंजिश भूल भी जाओ 
इन बातों में क्या रक्खा है 

किसी को राहत दे कर देखो 
तुम ने नाम 'शेफ़ा' रक्खा है