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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

............धनक निसार किया

एक हल्की फुल्की सी ग़ज़ल ले कर हाज़िर हुई हूं ,न तो ये ग़ज़ल इब्तेदाई दौर की ग़ज़लों जैसी नफ़ीस है और न मौजूदा ग़ज़लों जैसी हक़ीक़त पर मबनी ,फिर भी ग़ज़ल है लिहाज़ा आप लोगों तक पहुंचाने की जुर्रत कर रही हूं, इस की कामयाबी या नाकामयाबी का इन्हेसार  आप पर है -----------शुक्रिया

..............धनक निसार किया
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ज़िंदगी की धनक निसार किया
हर दफ़ा उस ने ऐतबार किया

मेरे बस एक ख़्वाब की ख़ातिर 
उस ने हर ख़्वाब तार तार किया

उस के जज़्बों का सच परखना था
मैं ने उस पर ही इन्हेसार किया

जानता था है इन्तेज़ार अबस
फिर भी हर लम्हा इन्तेज़ार किया

उस की मासूम सी निगाहों ने 
दिल में पैदा इक इंतेशार किया

मुझ से वाबस्ता ख़्वाब हैं उस के
चश्म ए रौशन ने इश्तेहार किया 
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इन्हेसार = निर्भर ; अबस = बेकार ; इंतेशार = हलचल , तितर-बितर
वाबस्ता= जुड़े हुए ; चश्म =आंख