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शुक्रवार, 10 जून 2011

.................सहर हो गई

गर्मी की छुट्टियां मसरूफ़ियात में एज़ाफ़ा कर देती हैं और  कभी कभी नेट से रिश्ता रख पाना 
नामुम्किन हो जाता है लिहाज़ा कुछ अरसे के बाद एक तरही ग़ज़ल के साथ हाज़िर हुई हूं 
मुलाहेज़ा फ़रमाएं 

"ज़रा आँख झपकी सहर हो गई "
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दुआ जो मेरी बेअसर हो गई 
फिर इक आरज़ू दर बदर हो गई

वफ़ा हम ने तुझ से निभाई मगर 
निगह में तेरी बे समर हो गई 

तलाश ए सुकूँ में भटकते रहे 
हयात अपनी यूंही बसर हो गई

कड़ी धूप की सख़्तियाँ झेल कर 
थी ममता जो मिस्ले शजर हो गई 

न जाने कि लोरी बनी कब ग़ज़ल 
"ज़रा आँख झपकी सहर हो गई"

वो लम्बी मसाफ़त की मंज़िल मेरी
तेरा साथ था ,मुख़्तसर हो गई

मैं जब भी उठा ले के परचम कोई
तो काँटों भरी रहगुज़र हो गई

’शेफ़ा’ तेरा लहजा ही कमज़ोर था 
तेरी बात गर्द ए सफ़र हो गई 
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बेसमर = असफल ; शजर = पेड़ ; मसाफ़त = दूरी , फ़ासला ;
मुख़्तसर = छोटी ; परचम = झंडा ; रहगुज़र = रास्ता 
गर्द ए सफ़र = राह की धूल