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शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

.............हम भी ,तुम भी

ग़ज़ल के चंद अश’आर हाज़िर ए ख़िदमत हैं ,
मुलाहेज़ा फ़रमाएं

............हम भी ,तुम भी 
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ऐसी गुज़री है कि हैरान हैं हम भी ,तुम भी
आज फिर बे सर ओ सामान हैं हम भी ,तुम भी
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क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
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छीन लेता है यहां भाई की रोटी भाई
सानहे कहते हैं हैवान हैं हम भी , तुम भी
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लब थे ख़ामोश प नज़रों के तसादुम ने कहा
चंद जज़्बों के निगहबान हैं हम भी , तुम भी
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ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं 
बेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम भी
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इम्तेहां लेता है वो और वही हल देता है
तालिबे साया  ए  रहमान है  हम भी , तुम भी
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अना = ego ;तसादुम = टकराव ; बयाबान = जंगल
निगहबान =रक्षक ;