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रविवार, 6 नवंबर 2011

.............आँख मिचोली धूप

एक तरही ग़ज़ल पेश कर रही हूँ  तरह ये है -
"सावन भादों में करती है हम से आँख मिचोली धूप "
यूँ तो घटाओं के झूमने का मौसम चला गया लेकिन गोवा में तो कभी भी घटाएं आसमान पर छा जाती हैं और बारिश होने लगती है लिहाज़ा ये ग़ज़ल शायद बेमौसम नहीं होगी 

ग़ज़ल
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अपनी बस्ती, अपना आँगन ,वो पीपल से लिपटी धूप
दूर वतन की याद जब आए ,है राहत की थपकी धूप


रोज़ी रोटी की ख़ातिर जब मारा मारा फिरता हूँ
अपने जैसी ही लगती है मुझ को पीली उजड़ी धूप


गर्मी जाड़े के मौसम में दिन भर साथ निभाती है 
" सावन भादों में करती है हम से आँख मिचोली धूप "


गाँव की गलियाँ , बाग़ के झूले , सब कुछ कितना प्यारा था 
मैं बचपन जी लेता हूं जब करती है अटखेली धूप 


रौशन कर दो दुनिया सारी अपने इल्म ओ दानिश से 
वक़्त ए सहर पैग़ाम ये ले कर आती है चमकीली धूप 


बचपन में जब माँ की लोरी मीठी नींद सुलाती थी
सर सहला कर मुझे जगाने हौले से आती थी धूप 


शब का जागा वक़्त ए सहर जब ख़्वाबों की आग़ोश में जाए 
टूट न जाएं ख़्वाब सुहाने ,धीरे से छुप जाती धूप 


कैसे वफ़ा हों अह्द ओ पैमाँ सीख ’शेफ़ा’ तू सूरज से 
रौशन कर के सुब्ह  को धरती ,अपना अह्द निभाती धूप 


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दानिश = अक़्ल , समझ बूझ ,, शब = रात ,, आग़ोश = गोद 
अह्द ओ पैमाँ = वादे , वचन