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गुरुवार, 21 जून 2012

आज फिर एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ इस उम्मीद के साथ कि आप सब हज़रात ओ ख़वातीन 
      मेरी बार बार की ग़ैर हाज़िरी को नज़र अंदाज़ कर के अपने ख़यालात से ज़रूर नवाज़ेंगे / नवाज़ेंगी , शुक्रिया


ग़ज़ल
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अपनी चालों से ख़ुद मात खाने लगे
तब यक़ीं के क़दम डगमगाने लगे
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लम्स ममता का बख़्शे वो आसूदगी
तिफ़्ल ख़्वाबों में भी मुस्कुराने लगे
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अब्र ए बाराँ से सोंधी जो ख़ुश्बू उठी
ख़ुद ब ख़ुद मेरे लब गुनगुनाने लगे
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साथ दीवार के रंजिशें ढह गईं
दोनों जानिब क़दम आने -जाने लगे
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एक मुद्दत रही हल्की-हल्की तपिश
आग ठंडी हुई ,पर ज़माने लगे 
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एक क़तरा ’शेफ़ा’ एहतेजाजन उठा
और नदी के क़दम लड़खड़ाने लगे
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आसूदगी= आराम,राहत ; तिफ़्ल= बच्चा ;एहतेजाजन=विरोध में