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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

एक ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है 

ग़ज़ल 
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अब कहाँ आन -बान बाक़ी है 
घर नहीं बस मकान बाक़ी है 
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जिस हवेली में बसते थे रिश्ते 
उस हवेली की शान बाक़ी है 
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नीम मुर्दा से हो गए फिर भी 
इन उसूलों में जान बाक़ी है 
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जिस के हाथों में हाथ हैं अब तक 
बस वही ख़ानदान बाक़ी है 
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होंगी सारी बलंदियाँ उस की 
बस ज़रा सी उड़ान बाक़ी है 
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बे असर हो गईं दवाएं सब 
ज़ख्म ए दिल का निशान बाक़ी है 
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ताएरों से खंडर ये कहता था 
जाओ मत ,सएबान बाक़ी है 
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उस के हाथों में है 'शेफ़ा 'क्योंके 
उस की शीरीं ज़बान बाक़ी है 
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नीम मुर्दा =अर्ध मृत ; ताएरों =पक्षियों ; शेफ़ा =रोग का निदान ; शीरीं =मीठी