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गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

एक माह के अरसे के बाद एक बार फिर एक ग़ज़ल के साथ हाज़िर ए ख़िदमत हूं

ग़ज़ल
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हथियार तेरे किस को डराने के लिये हैं
हम तो तेरा हर वार बचाने के लिये हैं
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हर फूल की क़िस्मत में शिवाला नहीं होता
कुछ फूल तो मय्यत पे सजाने के लिये हैं
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आँसू को सदा ग़म से ही जोड़ा नहीं करते
ख़ुशियों में भी कुछ अश्क बहाने के लिये हैं
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लरज़ीदह हैं लब , आँख में तन्हाई के आँसू
ख़ुश-बाश वो दुनिया को दिखाने के लिये हैं 
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हर ज़ख़्म की तशहीर ज़रूरी तो नहीं है
सदमे कई इस दिल में छिपाने के लिये हैं
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जो आग लगाए है नशेमन में, वो तुम हो 
हम जैसे ’शेफ़ा’ आग बुझाने के लिये हैं
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शिवाला= मंदिर ; मय्यत= शव ; लरज़ीदह= काँपते हुए ; 
ख़ुश- बाश= ख़ुश ; तशहीर = शोहरत, प्रसिद्धि ;
नशेमन= घोंसला ,,नीड़
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